काली महाविद्या – शनि ग्रह :

दशमहाविद्या तंत्र की यह पहली शक्ति है जिसके पूजन ,जप ,पाठ से देवी को शीघ्र प्रसन्न कर साधक अपनी मनोकामनाओं को पूर्ण कर लेता है । आम – जन की दृष्टि में काली महाविद्या विशेष कर वाममार्ग की साधना के अंतर्गत आता है । वैसे यह शक्ति अपने साधक पर शीघ्र की प्रसन्न हो जाती है । इस विद्या का स्वामी ग्रह शनि है । अतः इस राशि के जातक व जिनके कुंडली में यदि शनि ग्रह प्रतिकूल हो या जिनके धर्म स्थान का स्वामी शनि हो वह व्यक्ति माँ काली महाविद्या की उपासना कर शीघ्र ही शुभफल को प्राप्त करता है ।

तारा महाविद्या – बृहस्पति ग्रह :

तंत्र साधना में इस महाविद्या को मोक्ष देने वाली या यूं कहें तो शीघ्र ही तारने वाली को तारा नाम दिया गया है । तारा का एक अर्थ प्रकाश भी होता है । यानी तारा विद्या की कृपा से जीवन में प्रकाश यानी दृष्ट्री का बोध हो जाता है । सर्व प्रथम आचार्य बशिष्ठ ने कामरूप प्रदेश में माँ तारा की उपासना की थी । तंत्र साधना में सबसे श्रेष्ठ विद्याओं में तारा महाविद्या को माना जाता है ।आर्थिक उन्नति और बाधाओं के निवारण हेतु तारा महाविद्या का महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है । इसकी सिद्धि से साधक की आय के नित्य नए साधन बनते है । उसका जीवन ऐश्वर्यशाली बन जाता है । इसके प्रयोग से शत्रुनाश,वाणीदोष व मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है । गुरुवार इस साधना के लिए प्रसस्त माना गया है । जिसका स्वामी ग्रह बृहस्पति है या जिसके जन्म कुंडली में बृहस्पति ग्रह प्रतिकूल हो व जिसके जन्म कुंडली में धर्म स्थान का स्वामी बृहस्पति हो उस जातक को माँ तारा महाविद्या की साधना श्रेयष्कर मानी गयी है ।

षोडशी महाविद्या – बुध ग्रह :

काली ,तारा व षोडशी इन तीनों को प्रमुख विद्या के रूप में जाना जाता है । यदि विचार किया जाए तो मुख्यतः एक ही महाविद्या “श्रीविद्या” ही है जिसे विविध नामों – त्रिपुरसुंदरी, ललिता, राजराजेश्वरी ,कमला आदि नामों से जाना जाता है ।

त्रीणि ज्योतिषि सचते च षोडशी …इत्यादि वाक्यनुसार उस शिव – शक्ति के इन्ही तीनों रूपों ने विश्व को प्रकाशित कर रखा है ।तथा संसार मे यही श्रीविद्या के रूप में पूजित हो रही है । सामान्यतया श्री शब्द श्रेष्ठता एवं पवित्रता का सूचक है । कमर्मकांड कि भाषा में इस महाविद्या को महालक्ष्मी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त है । किंतु ब्रह्मांड पुराणोक्त अनुसार श्री शब्द का मुख्यार्थ महात्रिपुरसुंदरी विद्या ही है । सुनने में आता है कि महालक्ष्मी ने त्रिपुरसुंदरी की चिरकाल तक आराधना करके जो अनेक वरदान प्राप्त किये उनमें से एक वरदान “श्री” शब्द से प्रसिद्धि होने का भी मिला था । तभी से श्री शब्द का अर्थ महालक्ष्मी के रूप में ग्रहण हुआ ।

विभिन्न देवताओं की आराधना से धन – धान्य, पुत्र, स्त्री , सौख्यता आदिलौकिक फल प्राप्त होते है किंतु “श्रीविद्या” के उपासकों को लौकिक फल के साथ – साथ आत्मज्ञान की उपलब्धि हो जाती है । श्रीविद्या के साधकों को भोग व अपवर्ग दोनों ही सहज प्राप्त हो जाते है । इसी को “कादि विद्या”, कामराज विद्या भी कहा गया है । इसी क्रम में लोपामुद्रा आदि की साधना में ” हादी विद्या” का भी स्वरूप मूलतः वही है । इसकी उपासना यंत्र के रूप में विशेष तौर पर की जाती रही है । यह पूजन परम्परागत ही प्राप्त हो सकता है । इस महाविद्या का कारक ग्रह बुध है । जिस किसी भी जातक की कुंडली में बुध ग्रह प्रभावित हो या निर्वल हो उस जातक को श्रीयंत्र का पूजन व इस विद्या की उपासना कर सकता है । तथा इस परंपरा से दीक्षा प्राप्त कर अपनी उपासना शक्ति को केंद्रित कर सकता है ।

भुवनेश्वरी महाविद्या – चंद्रमा ग्रह :

भुवनेश्वरी महाविद्या – दश महाविद्या शक्तियों में भगवती भुवनेश्वरी को “” चतुर्थ विद्या के रूप में जाना जाता है । इनकी उपासना से इस संसार के समस्त जीवों को सम्मोहित किया जा सकता है । यह वाणी की अधिष्ठात्री देवी है । तथा इसी का अमरनाम ” राजराजेश्वरी है । यही सिद्ध दात्री व सिद्ध विद्या के नाम से संसार में प्रकाशित हो रही है । इसके शिव – त्रयम्बक है ।
तारा तंत्र शास्त्र में इस आद्या शक्ति को सृष्टि धारा की चतुर्थ सृष्टि विद्या कहा गया है ।क्योकि यदि सूर्य में सोमाहुति न होती तो यज्ञ असम्भव था और यज्ञ के बिना भुवन – रचना भी सम्भव नही थी । और बिना भुवन के भुवनेश्वरी भी उन्मुग्ध थी ।यह महाविद्या शक्ति तीनों लोकों पर दृष्टि रखती है। संसार मे जितनी भी प्रजा है,सबको उसी भुवनेश्वरी शक्ति से अन्न प्राप्त हो रहा है । चौरासी लाख योनिया उसी से अन्न लेकर जीवित है ।

यही उस महाविद्या शक्ति का “” वरदा “” स्वरूप है । भगवती भुवनेश्वरी की उपासना मुख्यतः वशीकरण ,सम्मोहन, वाकसिद्धि ,सौभाग्य लाभ, गृहस्थी की शुभता के साथ – साथ शत्रुओं पर विजय पाने की कामना से किया जाता है । इस महाविद्या का कारक ग्रह चंद्रमा है । जिस किसी जातक का चंद्रमा प्रभावित हो रहा हो वह निश्चित ही भगवती भुवनेश्वरी के अर्चन प्रयोगों से भगवती को प्रसन्न कर साथ ही अपने प्रतिकूल चंद्रमा को अनुकूल कर स्वयं के कामना की पूर्णता कर सकता है ।

त्रिपुर भैरवी महाविद्या – लग्नेश :

आगम ग्रन्थों में त्रिपुर भैरवी एकाक्षर रूप है । यह महाविद्या शत्रुशमन व तीव्र तंत्र बाधा के निवारण के लिए जानी जाती है । इसकी साधना कठिन तो है किंतु इसकी कृपा से साधक के जीवन में कांति भर जाती है । ज्योतिष की दृष्ट्री से जिस जातक की कुंडली में लग्नेश निर्बल हो उसे माँ त्रिपुर भैरवी का पूजन अर्चन करना शुभकारी बताया गया है ।

छिन्नमस्ता महाविद्या – राहु ग्रह:

माँ छिन्नमस्ता का स्वरूप गोपनीय है । इसका सर कटा हुआ है ।इसके बंध से रक्त की तीन धाराएं निकल रही है । जिसमें दो धाराएं उनकी सह्यचर्या शक्ति और एक धारा स्वयं देवी पान कर रही है । चतुर्थ संध्या काल ( तुरीय संध्याकाल) में छिन्नमस्ता की उपासना से साधक को सरस्वती की सिद्धि हो जाती है । जिसके जन्मांक में राहु ग्रह पीड़ित कर रहा हो या धर्मस्थान का राहु ग्रह बाधक हो रहा हो उस जातक को माँ छिन्नमस्ता की उपासना अवश्य करनी चाहिए । मॉ छिन्नमस्ता को पूजन से प्रसन्न कर राहु जनिष दोष को हटाया जा सकता है । इस महाविद्या की उपासना मनुष्य को उत्कर्ष पर पहुचा देती है । तथा साधक की वाणी में आकर्षण सिद्ध हो जाता है ।

धूमावती महाविद्या – केतु ग्रह:

यह सातवी महाविद्या के रूप में जानी जाती है । यह शत्रुओं का नाश करने वाली महाशक्ति तथा दुःखों की निबृत्ति करने वाली शक्ति के रूप में एसको प्रसिद्धि प्राप्त है । माँ धूमावती महाविद्या की साधना करने वाला ब्यक्ति कभी शत्रुओं से पराजित नही हो सकता ।यह चतुर्वर्ग को प्रदान करने वाली विद्या है । इसकी उपासना मुख्यतः चातुर्मास ( आषाढ़ कृष्ण एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी ) तक श्रेष्ठ मानी गयी है । जिस किसी जातक की कुंडली मे केतु ग्रह पीड़ित हो वह जातक वह जातक माँ धूमावती की आराधना कर केतु ग्रह को प्रसन्न कर सकता है । माँ की कृपा से असाध्य रोगों से शीघ्र ही छुटकारा ,विपत्ति नाश व युद्ध में विजय की प्राप्ति को प्रदान करटी है ।

बगला महाविद्या – मंगल ग्रह :

बगला महाविद्या को ही बगलामुखी या यूं कहें तो “अष्टमी विद्या” के नाम से जाना जाता है । काली ,तारा ,षोडशी का अंतर भाव ही बगला उपासना को पूर्ण करता है । मंगलवार चतुर्दशी की अर्द्धरात्रि भगवती बगला का आविर्भाव समय माना गया है । कलियुग में बगला की साधना अधिक श्रेयष्कारी मानी गयी है । यह एक ऐसी स्फोट शक्ति है जिसके प्रयोग से हजारों मील दूर पर स्थित व्यक्ति का शीघ्र ही आकर्षण किया जा सकता है । यह एक प्रकार की कृत्या शक्ति है जिसे मनुष्य अपने शत्रु को मनमाना कष्ट व पीड़ा को पहुचा सकता है । शत्रुशमन के लिए यह विद्या सबसे सटीक व महत्वपूर्ण मानी गयी है ।यह महाविद्या धन – धान्य के साथ – साथ भोग व मोक्ष आदि सिद्धियों को प्रदान करती है । राजनीति व उससे जुड़े लोगों के लिए यह महाविद्या एक प्रकार का अमोघ अस्त्र है ।इसकी उपासना से नेतृत्व में आकर्षण व प्रभाव में वृद्धि होती है । इस महाविद्या का प्रतिनिधित्व ग्रह मंगल है । अतः जिस किसी भी जातक के जन्म कुंडली व धर्म स्थान में मंगल ग्रह प्रभावित हो रहा हो वह जातक को बगला महाविद्या की उपासना करना शुभकारी सिद्ध होगा ।

मातङ्गी महाविद्या – सूर्य ग्रह :

मातङ्गी महाविद्या : भगवती मातङ्गी नवीं महाविद्या के रूप में संसार में जानी जाती है । इसके शिव मतङ्ग है । इन्हें संगीत और विद्या की देवी सरस्वती का तांत्रिक स्वरूप माना जाता है । इसी विद्या शक्ति को मोहरात्रि के रूप में हम सभी पूजते है । अलौकिक शक्तियों से युक्त ये भगवती अपने उपासकों के अभीष्ट को देने वाली है । इस कलियुग के दाम्पत्य पीड़ा जैसे घोर अभिशाप का नाश कर शीघ्र ही सुखद गार्हस्थ की पूर्णता व पति – पत्नी के आपसी सौहार्द की उपलब्धि को प्रदान करता है ।

खास तौर पर कन्या के विवाह में आने वाली बाधाओं अथवा वांछित स्थान पर सम्बन्ध न हो पाने की स्थिति में भगवती मातङ्गी की उपासना प्रभावकारी सिद्ध होती है ।

इस महाविद्या का कारक ग्रह सूर्य है । अतः जिस किसी भी जातक का सूर्य पीड़ित हो उसे भगवती मातङ्गी की अर्चना करनी चाहिए । चुकी सूर्य आत्मा का कारक है व दाम्पत्य की शुभता भी परस्पर आत्मीय बोध से ही शुभकर होगा इसी कारण इस कलियुग के इस दाम्पत्य पीड़ा का एक मात्र रामबाण उपाय भगवती मातङ्गी का शरण लेना ही शुभकर होगा ।

कमला महाविद्या – शुक्र ग्रह:

दश महाविद्या की प्रमुख शक्तियों में से एक कमला महाविद्या को जाना जाता है । तीनों लोकों को वश में करने के कारण इन्हें त्रैलोक्य माता भी कहा जाता है । यह विद्या सामान्य रूप से धन – धान्य प्रदान करने वाली सौभाग्य को देने वाली या यूं कहें तो समस्त ऐश्वर्य को प्रदान करनेवाली एक मात्र महाविद्या शक्ति है । इसी कारण इसे लक्ष्मी स्वरूपा भी कहा जाता है । इसका आश्रय लेने वाला जीव अपने समस्त पापों से शीघ्र ही निवृत्त हो जाता है । ज्योतिष की दृष्टि से रोहिणी नक्षत्र इसका अधिष्ठान काल माना गया है । इस नक्षत्र में उत्पन्न जातक आजीवन सुखी व समृद्ध बना रहता है ।यह महाविद्या केवल अर्चना मात्र से ही प्रसन्न हो जाती है । इसे तंत्र शास्त्रों में महारात्रि विद्या के नाम से जाना जाता है । इसके शिव सदाशिव विष्णु है । धूमावती तथा कमला शक्तियों में प्रतिस्पर्धा है । वह ज्येष्ठा है तो यह कमला कनिष्ठा के रूप में अवस्थित है । वे अवरोहिणी थी तो ये स्वयं में रोहिणी है। वे धूमावती आसुरी थी तो ये कमला दिव्या शक्ति के रूप में पूजित हो रही है । वे दरिद्रा थी तो ये कमला लक्ष्मी रूप में व्यवहृत हो संसार को शुभता प्रदान कर रही है । अतः देखा जाए तो जीव को इस संसार में भौतिक उन्नति के लिए भगवती कमला महाविद्या की उपासना अत्यंत लाभकारी सिद्ध होगी ।क्योकि भौतिक सम्पन्नता की सूचक कमला विद्या ही है । इसका कारक ग्रह शुक्र है जो स्वयं में भोग व एश्वर्यता का धोतक माना गया है ।इसकी शुभता जन्म कुंडली में सुख ,संसाधन ,उपलब्धि ,पद – प्रतिष्ठा व अनेक भोगों को दर्शाता है ।जीवन में उपलब्धियों का कारक ही शुक्र को माना गया है । अतः शुक्र के पीड़ित होने का अर्थ है भगवती कमला महाविद्या का मेरे स्वयं के जीवन व उपलब्धियों से रूष्ट हो जाना ।